गुरु नानक जयंती भारत में मनाए जाने वाले सिखों का सबसे प्रमुख पर्व हैं। गुरु नानक देव की जयंती कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है और हर साल 8 नवंबर को मनाया जाएगा। इस दिन सिख समुदाय के लोग सुबह प्रभात फेरी निकालते हैं। इसके अलावा गुरुद्वारे में कीर्तन और लंगर का आयोजन भी करते है।
गुरु नानक जयंती हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन पूरी दुनिया में मनाई जाती है। इस साल भी गुरु नानक जयंती 8 नवंबर को मनाई जाएगी। सिख धर्म के अनुयायियों के लिए यह जयंती काफी महत्वपूर्ण होती है। क्योंकि इसे प्रकाश उत्सव या गुरु पर्व भी कहा जाता है। गुरु नानक जयंती उत्सव पूर्णिमा से दो दिन पहले ही शुरू हो जाता ह। इसमें अखंड पाठ, नगर कीर्तन आदि जैसे अनुष्ठान शामिल होते हैं। गुरु नानक जयंती के दिन देश भर के गुरुद्वारों को सजाया जाता है, जहां बहुत बड़ी संख्या में भक्त आते है।
आखिर कौन थे "गुरु नानक जी "?
सिख धर्म के संथापक और प्रथम गुरू (गुरू नानक देव) जी का जन्म 14 अप्रैल 1469 को लाहौर के तलवंडी में हुआ था और यह स्थान आज की तारीख में पाकिस्तान में है।
इनके पिताजी का नाम कल्याणचंद था, जोकि एक कास्तकार थे। जब गुरु नानक जी 16 की आयु में इनका विवाह हो गया, और इनके दो पुत्र प्राप्त हुए जिनका नाम श्रीचंद और लक्ष्मीचंद था। गुरू नानक देव जी को भक्तिकाल के कवियों में से एक मानना जाती है। उन्होंने कई रचनाएं भी की और सिखों के पहले गुरू (गुरू नानक देव) को उनके अनुयायी गुरु नानक, बाबा नानक और नानक शाह और कई नाम हैं। यही कारण है कि तलवंडी का नाम बदलकर नानक साहब कर दिया गया। इनका बचपन से ही झुकाव आध्यात्मिकता की तरफ रहा इसलिए इन्हें स्कूल जाना पसंद नहीं था और केवल 18 साल की उम्र में ही उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और अपना पूरा जीवन ईश्वर और उनकी भक्ति में समर्पित कर दिया।
गुरु नानक देव जी ने सदियों से चली आ रही मूर्ति पूजन का विरोध किया जबकि सर्वेश्वरवाद का समर्थन किया। उन्होंने लोगों को सनातन के अलग-अलग ईश्वर को मानने की बजाय एक ही ईश्वर पर ध्यान देने का संदेश दिया।
गुरुनानक देव जी के जीवन के अंतिम पड़ाव में जीवन भर मानवता एवं एक ईश्वर की प्रार्थना का संदेश देने वाले नानक देव को सर्वाधिक प्रसिद्धि जीवन के अंतिम वर्षों प्राप्त हुई। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा यात्रा करते हुए व्यतीत किया था, उन्होंने करतारपुर में एक विशाल धर्मशाला का निर्माण करवाया और इसी करतारपुर में उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया। यही कारण है कि आज भी पाकिस्तान के करतारपुर में गुरुद्वारा है, जहां हर साल कई भारतीय व सिख धर्म के लोग जाते हैं।